आबकारी अधिकारी अशोक कुमार मिश्रा की प्रतिष्ठा बचाने की पुकार — विजिलेंस ट्रैप में जांच प्रक्रिया पर गंभीर सवाल
उत्तराखंड आबकारी अधिकारी द्वारा आरोप‑पत्र के खिलाफ विस्तृत स्पष्टीकरण दिया गया; गंभीर प्रक्रियगत त्रुटियों और न्यायालयीन आदेशों के आधार पर सेवा में पुनः बहाली की मांग की गई।

देहरादून, 16 जुलाई 2025 – उत्तराखंड के एक वरिष्ठ आबकारी अधिकारी, अशोक कुमार मिश्रा, जिनकी सेवा का आरंभ 18 जुलाई 2005 से हुआ, ने हाल ही में विभागीय कार्रवाई के खिलाफ एक विस्तृत स्पष्टीकरण पेश किया है। उन्होंने आरोप लगाया है कि विजिलेंस विभाग द्वारा आयोजित "ट्रैप" ऑपरेशन निराधार, प्रक्रियागत रूप से असंगत और न्यायिक दृष्टि से संदिग्ध था।
🛑 अभियोजन पर थके प्रश्नचिह्न
मिश्रा ने बताया कि ट्रैप के दौरान:
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स्वतंत्र गवाह न रहना एक प्रमुख कानूनी दोष है; सतर्कता अधिकारी दल से जुड़ी गवाही न्यायसंगत नहीं मानी जा सकती।
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रिश्वत की राशि दराज में मिली, न कि उनके हाथ में; इससे स्पष्ट होता है कि यह पैसा उनके संज्ञान से बाहर रखा गया हो सकता है।
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ऑडियो रिकॉर्डिंग शुरू होने का समय (4:01 PM) और गिरफ्तारी का समय (3:17 PM) स्पष्ट रूप से मेल नहीं खाते, जिससे रिकॉर्ड में छेड़छाड़ की आशंका प्रबल होती है।
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विजिलेंस टीम की यात्रा और रिकार्डर ऑन समय में विसंगतियाँ हैं — दिन के ट्रैफिक और आवश्यक औपचारिकताओं को देखते हुए इतनी तेज यात्रा अविश्वसनीय है।
⚖️ कानूनी एवं कार्रवाईगत खामियाँ
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ट्रैप संचालन के लिए अनिवार्य BNSS‑105 SOP का पालन नहीं किया गया और इसके बावजूद विजिलेंस द्वारा भ्रामक हलफनामा अदालत में पेश किया गया।
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सीसीटीवी फुटेज गायब रही, खासकर 15:03–15:05 का क्षण; यह संदेह उत्पन्न करता है कि साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ की गई।
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FIR पुराने CrPC के तहत दर्ज की गई, जबकि BNSS पहले ही प्रभावी था—यह संवैधानिक अनुच्छेद 20 का उल्लंघन है।
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विवेचक (IO) की नियुक्ति बिना विधिवत आदेश और तिथि के की गई, जिससे जांच की वैधता पर सवाल उठते हैं।
👤 शिकायतकर्ता की विश्वसनीयता पर सवाल
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शिकायतकर्ता का आपराधिक रिकॉर्ड जैसे जालसाजी, धोखाधड़ी, और पूर्व में सरकारी अधिकारियों को फंसाने के प्रयास अभियोजन पक्ष की विश्वसनीयता को कमजोर करते हैं।
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चारदारी की अपर्याप्त न्यायिक प्रक्रिया और विलंबित कार्रवाई से यह स्पष्ट होता है कि मामला ट्रैप की मानसिकता से खड़ा किया गया, न कि सचेत और वैध प्रक्रिया से।
🏛️ सर्वोच्च न्यायालय का दृष्टिकोण
मिश्रा को 6 जनवरी 2025 को सुप्रीम कोर्ट से शीघ्र जमानत प्रदान की गई। अदालत ने पाया कि अभियोजन पक्ष के सामने कोई निर्णायक या ठोस प्रमाण नहीं थे, जिस वजह से मिश्रा की रिहाई संभव हो सकी। यह संकेत देता है कि अभियोजन पक्ष का मामला पहली दृष्टया ही संदेहास्पद था।
🚩 निष्कर्ष और शासन से अनुरोध
अशोक कुमार मिश्रा का कहना है कि उनका कार्यकाल पारदर्शिता, कानून की मर्यादा और विभागीय आदेशों के पूर्ण अनुरूप चला। आरोप पूर्णतः मनगढ़ंत व दुर्भावनापूर्ण हैं, जिसका उद्देश्य उनकी प्रतिष्ठा को धूमिल करना है।
इस स्थिति में, उनका निवेदन है:
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उनके निलंबन को तत्काल निरस्त किया जाए, क्योंकि मामला प्रक्रियागत रूप से दोषयुक्त और न्यायिक रूप से कमजोर है।
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विधिक अनुशासनात्मक कार्यवाही को समाप्त किया जाए और उन्हें सेवा में पुनः बहाल किया जाए।
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